एकदन्त गणेशजी की कथा


एकदन्त गणेशजी की कथा


आपने कभी सोचा,“गणेशजी का एक दाँत टूटा हुआ क्यों है ?”

इस सन्दर्भ में कई कहानियां प्रचलित हैं.

एक प्रसंग के अनुसार गणेशजी ने स्वयं अपना दाँत तोङ कर उसकी लेखनी बनाई थी. जिससे कि वे गति के साथ, वेदव्यास के द्वारा बोली जा रही महाभारत को लिख सकें.

एक अन्य प्रसंग के अनुसार गणेशजी ने किसी कारणवश क्रोध में आकर स्वयं अपना दाँत तोङ कर चन्द्रमा कि ओर फेंका था.



मुझे जो कहानी व्यक्तिगत रुप से सबसे ज्यादा पसंद है, वह इस प्रकार से है---

   परशुराम विष्णु भगवान के अवतार हैं. परशुराम जिसका अर्थ है - फरसे के साथ, राम. परशुराम को यह फरसा स्वयं भगवान शिव से उपहार स्वरूप प्राप्त हुआ था.

   एक बार उन्होंने अहंकारी कार्तवीर्य अर्जुन राजा की पूरी सेना के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। उन्होंने अपने समस्त दुश्मनों को मार डाला और जीत गए. परशुराम को एहसास हुआ कि उन्हें ये जीत भगवान शिव की कृपा से मिली है। भगवान शिव युद्ध कला में उनके गुरु थे। युद्ध के बाद वे अपने आपको थका हुआ महसूस कर रहे थे, फिर भी वो अपने गुरु को धन्यवाद देना चाहते थे. परशुराम युद्ध के मैदान से उठे और भगवान शिव के धाम कैलाश की ओर चले, चलने के साथ ही, जो थकान महसूस कर रहे थे, वह गायब हो गयी.



 


   बहुत जल्द, ऋषि ने खुद को कैलाश के बाहर पाया और आश्चर्यचकित रह गए, जब उन्होंने द्वार के बाहर भगवान शिव और पार्वती के पुत्र गणेशजी को पाया. ऋषि परशुराम घर में प्रवेश करने वाले थे, तभी गणेशजी ने उन्हें रोका.

"आप घर में प्रवेश नहीं कर सकते!" गणेशजी ने तेजी से कहा.

क्यों?  परशुराम ने पूरी तरह से घबराते हुए पूछा.

मेरे माता-पिता सो रहे हैं. मैं नहीं चाहता कि इस समय कोई उन्हें परेशान करे. गणेशजी ने दृढ़ता से कहा.

परशुराम ने क्रोध से भरकर गणेशजी को देखा, और गुस्से से कहा, मैं भगवान शिव का भक्त और उनका शिष्य हूँ, मुझे कभी भी उनके पास जाने की अनुमति दी जानी चाहिए।

"नहीं!" गणेशजी ने उसी सख्ती के साथ कहा और परशुराम जान गए थे कि गणेशजी उन्हें अंदर नहीं जाने देंगे।

 "मुझे अंदर जाने दो, नहीं तो मैं तुमपर हमला कर दूंगा !" परशुराम ने इतना ही कहा, कि गणेशजी ने अपने हथियार को खींच लिया.

 "नहीं! मैं तुम्हें अंदर नहीं जाने दूंगा. गणेशजी ने दोहराया.

इस तरह कुछ देर की बहस के बाद, दोनों में घमासान युद्ध छिङ गया.दोनों एक दूसरे के साथ बुरी तरह से भिङ गए . हथियार से हथियार टकराकर भीषण गुंजन पैदा कर रहे थे. गणेशजी को ऐसा लग रहा था कि वे जीत रहे हैं. परशुराम की लड़ाई की तकनीक को देखते हुए, गणेशजी खुद पर नियंत्रण रखते हुए, बुद्धिमानी से लड़ रहे थे.






परशुराम क्रोधित थे और वे अधिक से अधिक क्रोधित होते जा रहे थे. उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि वे हार रहे हैं. क्रोध और हताशा में, परशुराम ने गणेशजी पर अपना फरसा फेंक दिया. एक क्षण के लिए, गणेशजी स्थिर रहे। गणेशजी ने महसूस किया कि अगर वे फरसे को काट देते हैं, तो इससे उनके अपने पिता का अनादर होगा क्योंकि ये अस्त्र भगवान शिव ने परशुराम को एक युद्ध के दौरान प्रदान किया था.


 गणेशजी ने शस्त्र पर ध्यान केंद्रित करते हुए, आदर सहित अपनी आँखें बंद कर लीं. फरसा गणेशजी की ओर बढ़ा और भगवान के एक दाँत को टुकडे में काट गया. दाँत को टुकडा जोर से, गड़गड़ाहट की ध्वनि के साथ जमीन पर गिरा.  चारों दिशाएं इसकी आवाज से गूँज गई. धरती में कंपन होने लगा. मानो प्रलय आ गई हो.

इसने भगवान शिव और देवी पार्वती जाग गए.

   देवी पार्वती घर से बाहर निकलीं और उन्होंने देखा कि उनके बेटे का कटा हुआ दाँत, फरसे के साथ, खून में लथपथ, जमीन पर पड़ा था। यह सब देखकर देवी तीव्र दुख और क्रोध से भर गईं.

   परशुराम बङे हैरान और परेशान हुए,  जब उन्होंने देवी पार्वती को क्रोध में देखा.  देवी जो आमतौर पर उनसे पुत्रवत्, बङा ममतामयी व्यवहार करती थीं,  अचानक बदल गईं. परशुराम ने पहली बार माँ का यह रूप देखा था - देवी दुर्गा क्रोध में, योद्धा के रुप में.

"तुमने मेरे बेटे को चोट पहुंचाई !", देवी उन्हें गुस्से से देख रही थीं और बोलीं "इसके लिए, मैं तुम्हारी बाहें काट दूंगी !"

"माँ!”, गणेशजी ने लगभग चिल्लाते हुए, अपनी माँ को कारण बताने की कोशिश की, "यह एक लड़ाई थी और यह मैं ही था जिसने ....", गणेशजी के शब्दों पर माँ ने कोई ध्यान नहीं दिया.

देवी दुर्गा की आँखें क्रोध से जल रही थीं और वह किसी की भी सुनने को तैयार नहीं थीं.

"पार्वती!" शिवजी ने कोमल स्वर से कहा, तब  देवी का ध्यान पति की ओर गया. खुद को नियंत्रित करने के लिए, एक गहरी सांस लेते हुए देवी शिवजी को देखने के लिए मुड़ी.

"परशुराम मेरे शिष्य हैं और वे आपके भी पुत्र के समान हैं।" शिवजी ने समझाते हुए कहा, "उसे अपने बेटे के रूप में देखें और उसे माफ कर दें।"

पार्वतीजी ने परशुराम का रुख किया और फिर धीरे-धीरे,  लगभग पूर्ण रूप से देवी अपने सामान्य रूप में आ गईं.  परशुरामजी ने राहत की सांस ली.

परशुरामजी ने अब गणेशजी को ओर देखा और तब उन्हें अहसास हुआ कि भगवान श्रीगणेश इतने महान क्यों हैं ? उन्होंने अपने पिता के  प्रति सम्मान के कारण, फरसे का कोई विरोध नहीं किया और परशुराम के फरसे के वार को अपने शरीर पर झेला. अपना दाँत खो देने के बावजूद, गणेशजी अपनी मां से परशुरामजी के जीवन को छोड़ने के लिए कह रहे थे.


परशुरामजी को अब समझ आ गया था कि उनका जीवन शिवजी और गणेशजी की धरोहर है. इन दोनों कि वजह से आज उन्हें जीवनदान मिला.

परशुरामजी ने अत्यंत श्रद्धा के साथ भगवान श्रीगणेश को प्रणाम किया और उन्हें अपना प्रिय फरसा सौंपते हुए कहा यह अब आपका है, मेरे भगवन् !, कृपया मुझे क्षमा करें".

भगवान श्रीगणेश ने मुस्कुराते हुए परशुराम जी को गले लगा लिया. इस तरह से भगवान श्रीगणेश अपने टूटे हुए दांत के कारण एकदंत के नाम से प्रसिद्ध हो गए. उनका यही रुप भक्तों को अतिप्रिय है.

यह कथा ब्रह्मानन्द पुराण से है.


आशा है आपको कहानी पसंद आई है. जल्दी ही मिलते है एक नई कहानी के साथ...

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