माँ पार्वती और उनका व्यक्तिगत गण/ Maa Parvati And Her Personal Gan [Bodygaurd], STORY IN HINDI


 माँ पार्वती को क्यों अपने लिए व्यक्तिगत गण कि आवश्यकता पङी ?,
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    माँ पार्वती के बारे में सभी जानते हैं. उनके नौ रूप, विभिन्न अवतार, शिव-पार्वती विवाह, शंकर-पार्वती का आपसी प्रेम,  माँ पार्वती के साथ गणेश और कार्तिकेय, भगवान शिव ने माँ पार्वती को धर्म और मोक्ष के रहस्य बताए, देवी माँ पार्वती के 108 नाम [ जैसे उमा, गौरी, दुर्गा, सती, भवानी, भद्राकाली, चामुंडा, चद्रघंटा, माहेश्वरी, लक्ष्मी, नारायणी, महिषासुरमर्दिनी, शाम्भवी, वैष्णवी आदि ], के बारे में तो बहुत सारी कथाएँ प्रचलित हैं. लेकिन शायद ही आपको पता हो कि माँ पार्वती को क्यों अपने लिए व्यक्तिगत गण कि आवश्यकता पङी

  माँ पार्वती और उनका व्यक्तिगत गण




     भगवती पार्वती की दो सखियाँ थीं, जया और विजया. वे दोनों अत्यन्त रूपवती, गुणवती, विवेकमयी और मधुरहासिनी थीं. पार्वतीजी उनसे बहुत आदर और प्रेम सहित व्यवहार करती थीं. एक दिन उन सखियों ने पार्वतीजी से कुछ झिझकते हुए कहा, सखि ! अपना कोई गण नहीं है, हमारा निजी एक गण तो अवश्य होना ही चाहिए।  माँ ने आश्चर्यपूर्वक उनकी ओर देखकर कहा,क्या कह रही हो?, सखियों!  हमारे पास करोड़ों गण हैं, जो तुरन्त आज्ञा पालन में तत्पर रहते हैं. फिर किसी अन्य गण की क्या आवश्यकता है?”.   सखियों ने कहा,सभी गण भगवान शिवजी के हैं. उन्हीं की आज्ञा, उनके लिए प्रमुख है. नन्दी, भृंगी आदि गण जो हमारे कहलाते हैं, वे भी भगवान की आज्ञा को ही सर्वोपरि मानते हैं. यदि आप कोई आदेश दें और शिवजी उसकी उपेक्षा करें, तो आपके आदेश कि गण भी अवहेलना करेंगे, कोई भी नहीं मानेगा. अगर आप इस उपेक्षा के सम्बन्ध में पूछेगीं, तो अवश्य ही कोई बहाना बना दिया जायेगा.”


    पार्वतीजी ने कुछ देर सोचा और फिर कहा, और यह असंख्य प्रमथगण, क्या इनमें भी कोई मेरी आज्ञा की उपेक्षा कर सकता है ?”. सखियाँ बोलीं, प्रमथगण  तो हमारे हैं ही नहीं, वे सभी भगवान शिवजी के व्यक्तिगत सैनिक हैं. वे शिवजी की आज्ञा से हमारी रक्षा करने और हमारे कार्यकलापों पर दृष्टि रखने के उद्देश्य से ही नियुक्त हैं इसलिए कृपा कर, अपने लिए भी एक व्यक्तिगत गण की रचना अवश्य कीजिए.” पार्वती ने उनका सुझाव स्वीकार तो कर लिया, किन्तु कार्यरूप में  परिणत नहीं किया. बात वहीं की वहीं रह गयी और कुछ दिन बीतते वे उसे भूल गयीं.


    एक दिन प्रातःकाल का समय था. पार्वती जी घर के अन्दर स्नान करने के लिए जा रही थीं, उन्होंने नन्दी को आदेश दिया, कोई आए तो उसे रोक देना.” और वे  घर के भीतर चली गईं. तभी! भगवान शंकर कहीं से, किसी जल्दी में आकर, घर के भीतर प्रविष्ट होने लगे. नन्दीश्वर ने उन्हें रोकते हुए निवेदन किया, अभी माता  का आदेश है, कोई अन्दर न जाए, इसलिए आप यहीं ठहरने की कृपा करें.” शिवजी बोले, अरे, तुम मुझे अपने घर के अन्दर जाने से कैसे रोक सकते हो? मुझे एक बहुत आवश्यक कार्य है. मैं यहाँ कैसे रुका रह सकता हूँ?”.  यह कहते हुए शिवजी, नन्दी के वचनों की उपेक्षा कर सीधे घर के मध्य में जा पहुँचे.


    भगवान को शीघ्रता से अंदर आया देखकर, स्नान करती हुई जगत जननी लज्जावश अपने में ही सिमट गईं. शिवजी ने जब यह देखा तो सकपकाकर!, बिना कुछ बोले, वहाँ से लौट आये. इधर पार्वतीजी स्नान के उपरान्त वस्त्र धारण करती हुई सोचने लगीं. "जया-विजया का सुझाव उचित ही था. मैंने व्यर्थ ही उसकी उपेक्षा की. यदि द्वार पर मेरा कोई निजी गण उपस्थित होता तो क्या शिवजी को स्नानागार में सहज ही प्रवेश करने देता! नन्दी ने मेरे वचनों की उपेक्षा की. इससे प्रतीत होता है कि इन गणों पर मेरा पूरा अधिकार नहीं है. इसलिए मेरा निजी गण अवश्य होना चाहिए. वही पूर्ण रूप से मेरी आज्ञा में रहेगा. अभी जो गण हैं, वे शिवजी की आज्ञा से ही, मेरी आज्ञा मानते हैं. किन्तु मेरा निजीगण मेरी आज्ञा से ही, उनकी भी आज्ञा मानेगा." इस विचार से उनके चेहरे पर मुस्कान फैल गई.


    ऐसा विचार कर उन्होंने अपनी अत्यन्त पवित्र देह के अंश से एक चेतन पुरुष की रचना कर डालीं. वह पुरुष सभी शुभ लक्षणों से सम्पन्न, समस्त अवयवों से युक्त, दोष रहित, अत्यन्त सुन्दर अंगों वाला, विशालकाय, अद्भुत शोभामय, महाबली एवं पराक्रमी दिखाई दे रहा था. पार्वती जी ने प्रसन्न मन से, तुरन्त ही उसे अनेक प्रकार के दिव्य वस्त्राभूषण धारण कराये और शुभ आर्शिवाद देती हुई बोलीं, वत्स! तुम मेरे पुत्र हो. मेरे हृदय-रूप होने के कारण, बिलकुल मेरे जैसे हो. तुम, मुझे अत्यधिक प्रिय हो. तेरे जैसा अन्य कोई इस संसार में नहीं है.”


    तब उस नवीन उत्पन्न पुरुष ने अत्यन्त आदरपूर्वक जगत जननी के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया और फिर हाथ जोड़कर बोला, जननी! मैं आपका पुत्र हूँ, मैं आपका ही हूँ, आपका ही रहूँगा. सदैव आपकी आज्ञा पालन करूँगा.”

 इस तरह गणपतिजी का जन्म हुआ.



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