गुरु-दक्षिणा और सोने का वृक्ष
दशहरे के दिन सोना
क्यों बाटते हैं ? जानने के लिए पढें ---
गुरु-दक्षिणा और सोने का वृक्ष
एक समय की बात है. अयोध्या नगरी के पास, एक
गुरु का शांत और सुरम्य वातावरण वाला आश्रम था. गुरु का नाम वारातंतु था. उनके
आश्रम में बहुत से विद्यार्थी, दूर-दूर से पढ़ने के लिए आते थे. समाज के सभी वर्गों के
बच्चे, गुरु के पास शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते थे. गुरु वारातंतु सभी छात्रों
के साथ, समान भाव से, प्रेमपूर्वक व्यवहार करते थे. बिना किसी भेदभाव के सभी को, समान शिक्षा प्राप्त करने का, अवसर देते थे. विद्यार्थी भी गुरु का बहुत आदर करते थे.
एक बार कि बात है, कुछ विद्यार्थियों की शिक्षा
समाप्त हुई और वे सब घर जाने के लिए तत्पर हुए. वापस घर जाने के समय, प्रत्येक
विद्यार्थी, अपने परिवार के सामर्थ्य अनुसार, गुरु को गुरुदक्षिणा दे रहा था. एक विद्यार्थी जिसका नाम कौत्सव था, बहुत गरीब
था. उसके पास गुरु दक्षिणा में देने के लिए कुछ भी नहीं था. फिर भी वह गुरु से
बार-बार पूछ रहा था, “आप को गुरु दक्षिणा में क्या चाहिए?”, “आप को गुरु दक्षिणा में क्या चाहिए?”. गुरु वारातंतु को यह भलीभाँति पता
था कि उसके परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है इसलिए वो बार-बार उसे मना कर
रहे थे. वे कह रहे थे, “मुझे तुम से कुछ नहीं चाहिए”. लेकिन वह निरंतर अपनी बात को दुहराता हुआ अड़ा
हुआ था. उसकी यह ढीटाइ देखकर गुरु ने क्रोध में आकर, उससे कहा, “मैंने तुझे चौदह विद्याएँ सिखाई हैं, इसलिए तू चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राएं लाकर, गुरुदक्षिणा के भार
से मुक्त हो”.
बात तो गुरु वारातंतु ने क्रोध में आकर, कौत्सव को टालने के लिए कही थी. फिर भी, कौत्सव गुरु की बात को, पूरी करना चाहता था. पर
उसके पास तो, एक भी, स्वर्ण मुद्रा नहीं थी.
वह अयोध्या नगरी के राजा, भगवान राम के, दरबार में गया और उनसे सहायता मांगते
हुए कहा, “मुझे चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राएं, अपने गुरु को, गुरुदक्षिणा देने के लिए चाहिए”. उसने अपनी सारी
कहानी, भगवान राम को कह सुनाई. भगवान राम
ने उसकी सारी बातें ध्यान से सुनीं और बोले, “मैं तुम्हारी सहायता अवश्य करूँगा, पर इसके लिए,
तुम्हें गांव के बाहर, शमी वृक्ष के समीप, इंतजार करना होगा. तीन दिनों के बाद, तुम्हें
शमी वृक्ष के पास, चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राएं मिल जाएगी”.
भगवान राम के कहे अनुसार, तीसरे दिन
वह शमी वृक्ष के निकट जाकर खड़ा हो गया.
वह दिन दशहरे का दिन था. भगवान राम ने, धन के देवता कुबेर, को कौत्सव की मदद करने के लिए कहा. भगवान राम के
आदेशानुसार, कुबेर ने, शमी वृक्ष के ऊपर, स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा कर दी. स्वर्ण
मुद्राओं कि बौछार से, ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे सारे शमीवृक्ष के पत्ते, सोने
के बन गए हों. सोने के पत्तों से सजा, ये वृक्ष बहुत सुंदर दिखाई दे रहा था. चारों
तरफ स्वर्ण मुद्राएं ही स्वर्ण मुद्राएं फैली हुई थीं.
कौत्सव ने स्वर्ण मुद्राओं को देखा और शमीवृक्ष
के चारों ओर खुशी से नाचने लगा. हाथ जोङकर, उसने मन ही मन, भगवान राम को, करोड़ों-करोड़
बार, धन्यवाद दिया. उसने सोने के सिक्कों को इकट्ठा करना शुरू किया. लेकिन ये क्या? उनकी संख्या तो चौदह करोड़ से बहुत ज्यादा थी. कौत्सव ने सभी स्वर्ण मुद्राओं को एकत्रित किया और गुरु के आश्रम
की तरफ चल दिया. उसमें से चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राएं ले जाकर उसने अपने गुरु के चरणों में रख दी और कहा, “यह मेरी गुरु
दक्षिणा है, गुरूजी स्वीकार करें”. गुरु वारातंतु को बहुत आश्चर्य हुआ, किन्तु
उन्होंने सारी कहानी जानने के बाद, उसे ढेर सारे आशीर्वाद दिये.
गुरुदक्षिणा के भार से मुक्त होने के बाद भी,
उसके पास अभी भी, बहुत सारी स्वर्ण मुद्राएं बाकी थी. उन्हें लेकर, वह गांव में आ
गया. तभी उसने, अपने सामने, गाँव के एक वृद्ध व्यक्ति को आते देखा, तुरंत उसने
उनके पांव छू कर, उन्हें एक स्वर्ण मुद्रा
दी. इसपर उन्होंने उसे सुख-समृद्धि, स्वास्थ्य और विजयी होने का आशीर्वाद दिया. इस
तरह वह गांव के सभी बड़े लोगों को, वृद्ध और गुरुजनों को उनके पांव छूकर स्वर्ण
मुद्राएं देने लगा. सब उसे आशीर्वाद दे रहे थे.
गांव
वालों ने उससे पूछा, “तुम्हारे पास इतनी सारी स्वर्ण मुद्राएं कहां से आई?”, तो उसने उन्हें
सारा वृतांत विस्तार से सुनाया. कहानी सुनकर सब लोग बहुत खुश हुए और शमी वृक्ष के
पास गए. वहां पर शमी वृक्ष, अपनी पत्तियों से सजा हुआ, बहुत ही सुंदर दिखाई दे रहा था. सब लोगों ने मिलकर, शमी वृक्ष कि पूजा की. इसके उपरांत, सबने शमी के पत्ते, सोने के रुप में, एक-दूसरे
को दिये और सुख-समृद्धि, स्वास्थ्य और विजयी होने कि शुभकामनाएं, एक दूसरे को दी. उस
दिन से यह परंपरा ही बन गयी.
आज भी महाराष्ट्र और कुछ अन्य दक्षिणी
प्रदेशों में यह प्रथा प्रचलित है.
दशहरे के दिन लोग शमी
के पत्ते, सोने के रुप में, अपने बड़ों को, अपने दोस्तों को, अपने पड़ोसियों को देते
हैं. एक दूसरे का मुँह मीठा कराने के साथ, उनको सुख-समृद्धि, स्वास्थ्य और विजयी
होने की शुभकामनाएं देते हैं.
मेरी माँ, बचपन में, जब कथा पूरी करती
थी, तो कहती थीं,
“कहते को, सुनते को, हुँकारे भरते को...
”.
मैं भी
आज इस कथा के अंत में यही शुभकामनाएं दे रही हूँ... “कहते को, सुनते को, हुँकारे भरते को, जैसी कृपा
भगवान राम ने कौत्सव पर की, वैसी कृपा, हम सब पर करना, हम सब पर करना...”
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