देवी पार्वती और अशोक का गुच्छा



शारदीय नवरात्रि के उपलक्क्ष में शिव-पार्वती कि एक रोचक कथा 

देवी पार्वती और अशोक का गुच्छा



     एक समय की बात है, महर्षि कश्यप घूमते- घूमते पर्वतराज हिमालय के महल  में जा पहुँचें. उनके अचानक आगमन से पर्वतराज बहुत प्रसन्न हुये.  हिमालय ने उनका यथोचित  प्रेमपूर्वक आदर सत्कार किया.पर्वतराज की अतिथि सेवा से तप्त महर्षि कश्यप गिरिराज हिमालय को अनेको अनेक आर्शिवाद देने लगे. पर्वतराज हिमालय कृतज्ञभाव से हाथ जोङकर बोले, 'मुनिवर आप तो सर्वज्ञानी हैं. कृपया बताइए कि  मैं कैसे मोक्ष प्राप्त कर सकता हूँ ?’.  इसपर  महर्षि कश्यप बोले,मोक्ष प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ संतान का होना आवश्यक है. उत्तम गुणों से युक्त संतान, न केवल अपना, अपितु समस्त परिवार का उद्धार करती है, इसलिए हे पर्वतराज! आप संतान प्राप्ति हेतु यज्ञ करें और मनवान्छित फल प्राप्त करें.  

  

     महर्षि कश्यप के बताए नुसार गिरिराज हिमालय ने अनेक वर्षों तक घोर तपस्या की. उनके तप से खुश होकर ब्रह्माजी प्रकट हुए . गिरिराज हिमालय ब्रह्माजी के सामने नतमस्तक होकर, अनेक प्रकार उनकी स्तुति करने लगे. ब्रह्माजी बोले, हे पुत्र! मैं तेरी भक्ति और तपस्या से बहुत प्रसन्न हूँ,  किस उद्देश्य के लिए तुमने ये घोर तपस्या का रास्ता चुना है, तेरी क्या मनोकामना है?. इसपर गिरिराज हाथ जोङकर बोले, प्रभु! आप तो भक्तवत्सल हैं, सबके मन की बात जानते हैं, आपकी कृपादृष्टि प्राप्त करके मैं धन्य हो गया. मुझपर आप सदैव अपनी कृपा बनाए रखें और मुझे एक सर्वगुण संपन्न संतान प्रदान करने कि कृपा करें.

     ब्रह्माजी बोले, एवमस्तु, तुम्हारी इच्छा पूरी होगी. तुम्हारे घर जल्दी ही साक्षात् भगवती दुर्गा एक कन्या के रुप में जन्म लेंगीं. उनके कारण तुम तीनों लोकों में यश पाओगे. तुम्हारे कल्याण के साथ-साथ जग का भी कल्याण होगा. गिरिराज हिमालय में असंख्य तीर्थ स्थान और तपस्या स्थान स्थापित होंगे. जहाँ दर्शन, आराधना और तपस्या से जन-जन को मनोवांछित फल की प्राप्ति होगी. तुम अमर रहोगे, संसार तुम्हारे पुण्य के कारण कलियुग में भी पावन और पवित्र बना रहेगा. वरदानों से हिमालय की झोली पूरी तरह से भरकर ब्रह्माजी अंतर्ध्यान हो गए.    

      उचित समय आने पर गिरिराज हिमालय की पत्नी मैना ने एक सुन्दर कन्या को जन्म दिया. दोनों पति-पत्नी बहुत खुश थे, विधि-विधान से कन्या का नाम पार्वती रखा. पार्वती बचपन से ही शिवजी की भक्ति में लीन रहती. महादेव को उन्होंने मन ही मन अपना पति मान लिया था. हमेशा आराधना, ध्यान और उपवास से उनका शरीर बेहद दुर्बल और शक्तिहीन हो गया. माँ मैना ने पुत्री की दशा से द्रवित होकर कहा उ मा (ऐसा मत करो). तभी से उमा नाम से देवी पार्वती इस जग में विख्यात हो गईं.     

     समय के साथ-साथ देवी पार्वती की तपस्या कठोर से कठोरतम होती चली गयी. उनके तप के तेज से तीनों लोक जल उठे. पृथ्वी, नभ और पाताल में हाहाकार होने लगा. तब ब्रह्माजी प्रकट हुए और बोले, हे जगत जननी! आप क्यों अपने तप से इस जग को जलाकर भस्म कर रही हो. आपकी संतानें आपके घोर तप कि ज्वाला से जल रहीं हैं. आप अपनी तपस्या से क्या प्राप्त करना चाहतीं हैं. इस त्रिलोक में ऐसी कौन सी वस्तु है, जो आपको अप्राप्य है. कल्याणी!, त्रिलोक की रक्षा हेतु आप अपनी तपस्या का त्याग करने की कृपा करें.

     ब्रह्माजी के इस प्रकार के वचन सुनकर कन्यारुपी देवी पार्वती ने सकुचाते हुए कहा, पितामह! आप तो सबके मन की बात जानते हैं, मैं अब आपके सामने क्या कहूँ.’, कहकर देवी ने शरमाकर सिर नीचे कर लिया और पाँव के अँगूठे से भूमि कुरेदने लगीं. इसपर पितामह ब्रह्माजी ने मंद-मंद मुसकुराते हुए कहा, कल्याणी! आप जिनके लिए तपस्या कर रही हो, वो देवों के देव महादेव शीघ्र ही पत्नी रुप में आपका वरण करनें आएंगे.  अब आप अपनी तपस्या का त्याग करो. यह कहकर ब्रह्माजी अंतर्ध्यान हो गए.  

देवी पार्वती ने पितामह ब्रह्माजी के कहे अनुसार कठोर तपस्या का त्याग कर, भगवान शिव की मन ही मन बाट जोहने लगी. एक दिन जब माँ पार्वती ध्यान में मग्न हो कर पूजा-अर्चना कर रहीं थीं, तभी देवाधिदेव महादेव उनकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से वहाँ आए. प्रभु ने अपना  बङा विकृत रुप बना लिया. अपने भयानक रुप में वे देवी से प्रणय याचना करने लगे. देवी! तुम कितनी रूपवती हो, सर्वगुण संपन्न हो, तुम्हें देखकर मैं इतना आसक्त हो गया हूँ कि इसी क्षण तुम्हारा पत्नी रुप में वरण करता हूँ’. जगत जननी पार्वती तुरंत शिवजी के कौतुक को जान गई और बोलीं, मैं तो तैयार हूँ पर बिना मेरे पिता की आज्ञा के आप मेरा वरण नहीं कर सकते’. महादेव अब अपने स्वाभाविक रुप में आकर बोले, प्रिये! यदि उन्होंने स्वयंवर रचा तो तुम रुपवानों कि भीङ में कैसे मेरा चयन करोगी?’.उनकी ये बात सुनकर देवी ने कहा, आप निक्ष्चिंत रहें. स्वयंवर में भी मैं आपका ही वरण करुगीं’. यह कहकर पार्वतीजी अपने हाथ में पकङे अशोक के गुच्छे को भगवान शंकर के कंधे पर रख दिया और बोलीं, ‘मैं इसी क्षण पतीरुप आपका वरण करती हूँ.

 इसपर देवाधिदेव महादेवजी ने पार्वतीजी के द्वारा वरण किये जाने पर प्रसन्न होकर अशोक वृक्ष को वर देते हुए कहा, तुम्हारे पावन पत्रों द्वारा मेरा वरण हुआ है इसलिए तुम अमर रहोगे, तुम कामनाओं को पूरा करने वाले होगे, तुम्हारा सभी शुभ कार्यों में स्वागत होगा, मेरे साथ-साथ सभी देवी-देवताओं के तुम प्रिय होगे.   

 इसके बाद भगवान शंकर प्रसन्नमन से पार्वतीजी से विदा लेकर अंतर्ध्यान हो गए.  



Comments

  1. कथा बहुत रोचक एवं ज्ञानवर्धक है। इसके लिए बहुत-बहुत बधाई।

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